मेरी रुह का हिस्सा

मेरी रुह का हिस्सा


                    अब मेरे लिए बाहर की दुनियाँ तेरे बिना बिलकुल अलग़ सी लगती है, बिलकुल काली अँधेरी सी जिंदगी । जैसे  काले कत्थे घने से रंग में रंगे पेड़ों के तने, पेड़ पर बैठा कोई काक भी काला और पेड़ की छाया भी काली  . . . . . . . . .! लगता है सारे भेद भुलाकर सबकुछ इसी कालेपन में समां गए है। यूँ लगने लगता है खुद की ही छाया में पेड़ जिन्दा है। सोचता हु क्या प्रीत की छाया भी ऐसे ही काली होती होगी ? क्या प्रीत ऐसे ही अपनी ही छाया में खिलती होगी ? मै आख़री साँसों तक कोशीश करता रहता हु, रंगबिरंगी ख़्वाबों का कोई पेड़ देखने की। पर ख़्वाबों के रंगबिरंगी वृक्ष अब कहीं नज़र नहीं आते। पता नहीं होते है भी या नहीं ! 


                    हां कभी कभार कोई चाँदनी की आग में जलता हुआ खाव्बों का वृक्ष दिख जाता है, उसके सीने की जलन मुझे भी जला देती है। कई सवाल मै उस जलते, सुलगते वृक्ष से करना चाहता हु, पर कैसे कहु ? क्या मरने वाले से ये सवाल पूछना जायज है ? सिर्फ तुमसे सवाल किये बगैर और कोई क्या जबाब दे सकेगा। मै पूछना चाहता हु तुमसे कि और कितनी आग इस चाँदनी की मेरे ख़्वाबों को जलायेगी ?  क्या तुम्हे पता है - ख़्वाबों में बसते मेरे गांव की खुशबु मेरी रुह का हिस्सा है, वो प्रतिपल की मेरी अनुभूतियों की साक्षी है। वह गाँव अब मेरे खाव्बों से धीरे धीरे उजड़ रहा है। उजड़ते हुए उस गाँव में तेरी बूँद बूँद प्रीत को तरसते हुए मटके है बस। कुछ यादों के मुरझाये पत्ते है जो जलते हुए वृक्ष पर अब भी किसी उम्मीद की आस में जिए जा रहे है। कुछ यादें पागल पवन सी इधर उधर भटकती रहती है।  ये यादेँ ही है जो मन की खिड़की खोलकर किसी अल्लड किशोरी की तरह किलोर करती रहती है।  


                        इन सारे संजीदा पलों को मैंने बड़े जतन से सँजोया है और तुम्हें पता होना चाहिए कि ऐसे रिश्ते को बहुत संजोकर रखने पड़ते है, क्योकि जीवन के दुःखों में प्रीत, प्यार ही छुअन है,जो उसे जिन्दा रखते है। मैंने तेरे प्रीत में दुख - सुख, हर्ष, विषाद, प्यार, मुस्कान जैसे कई पड़ाव देखे है, जिससे होकर मेरे जीवन की धारा बहती है। अकेला सा मन अब ख़ुद के गहरे घावों को जैसे लिपटकर रह गया हो। सारी  यादें अब गुजरे ज़माने की बातें लगती हो। कभी कोई गुजरा ज़माना कही लौट आता है ? उस गुजरे हुए ज़माने की सिर्फ रह जाती है कोई धुंदली सी याद, वैसे ही जैसे तपती धुप में लगे अचानक शाम हो गयी हो । जले हुए मन के राख़ के नीचे छुपाये हुए यादोँ के जलते अंगारे जैसे अब भी सुलग रहे हो। अब तो  जीवन के सारे कड़वे - मीठे, धुप - छाँव के खेल जैसे नीरस हो गए है ।  सुने पड़े मन के आँगन में बिखरे पड़े यादोँ के दाने चुगने कुछ परिंदे आते जरुर है, लेकिन जरासी आहट से उड़ भी जाते है।  मन का आँगन फिर से सुना हो जाता है, ऐसे ही, जैसे उड़ गए पल हो   . . . . . !


                    फिर भी गंधभरे फूलों के नाजुक पलों की बहार, गर्म राख़ लपेटकर सारी उम्र अंदर ही अंदर सुलग़ती रहती है।  सुने, तपते रेगिस्तान में क्षितिज के पार आषाढ़ के उम्मीद  में  बिख़रे यादोँ के पल  . . . . . . . . उसमें कही खोया सा मन, उसी आषाढ़ में फ़िर से भीगने की चाहत में दूर निकल जाता है, उन्हीं यादोँ को फिर से समेटने के लिए।  


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