ख़ामोश हँसी फ़िर से खिल उठे कभी

ख़्वाबों के गाँव से तेरी याँदे मेरे शहर कि और चली आती है। कई अनगिनत यादों को मै मुर्दों जैसे याद करते रहता हु। कई यादों के अनुभवों को मै तेरे साथ दिल के कागज़ पर लिखना चाहता हूँ

ख़्वाबों के गाँव से तेरी याँदे मेरे शहर कि और चली आती है। कई अनगिनत यादों को मै मुर्दों जैसे याद करते रहता हु। कई यादों के अनुभवों को मै तेरे साथ दिल के कागज़ पर लिखना चाहता हूँ पर तुमसे अलग़ क्या लिखुँ ? कैसे लिखुँ ? तेरे बिन पतझड़ के मौसम का हर एक पत्ता निःशब्द होकर पेड़ की डाली से लिपटकर हवा के हर एक झोंके के साथ मुझ पर खिलखिलाकर हसते रहता है। अपने जीने के आखरी पड़ाव का उत्सव होता होगा शायद उन पत्तों के लिए जो अब बिछड़ जाने को तैयार है। वही हँसी अब मेरे दिल में भी उठती है।  

बाहर सांज का सूरज धीरे धीरे अपना रंग खोने लगता है। बिलकुल वैसे ही जैसे मैंने भी अपना रंग खोया हो तेरे प्यार में। आसपास यादों का अंधेरा अपना अस्तित्व दिखाने को बेताब खड़ा सा महसुस होता है।  तेरी इन्हीं यादों का बोझ लेकर मै तन्हाईयों में बस भटकते रहता हु। यहीं यादें ख़्वांबो की गलियों की दीवारों पर ख़ुद की आडी तिरछी परछाइयाँ खेल खेलते हुयी नज़र आती है।  किसी झोपड़ी में गैसबत्ती की शुभ्रधवल मेन्टल की जलती हुयी रौशनी में अचानक तेरा चेहरा दिखने लगता है। मै बिना कुछ कहे ख़ामोश उस जलते हुए मेन्टल की और देखते रहता हु। लगता है जैसे उस गैसबत्ती के मेन्टल में शायद कही मेरा मन ही जलता होगा ?


बिछड़ चुके पत्ते के विश्वास का पाखी हरी शाखाओं पर फिर से बसेरा पाने को तरसता है। कहीं बनावटी चेहरों के जंगल है तो कही जीवन के हर क़दम पर तपती धूप है, तो कहीं छलकती हँसी है।  ये सब तुम्हें बड़ा अजीब सा लग रहा होगा, लेकिन जीवन केवल कल्पना की उड़ान नहीं है।  मेरा जीवन तेरे प्रीत की वास्तविकता के धरातल पर अच्छे बुरे अनुभवों की यथार्थ संवेदनशीलता की कविता है। मुझे पता है आँखों के घर में आंसू कभी ठहरते नहीं क्योंकि पेड़ों, मकानों, जंगलों और सड़कों पर बिखरी धुप सी तेरी प्रीत को बार बार अंजुली में भर कर जिसे आँखों से भरने की नाकाम कोशिश में जीवन का आधा सफ़र अब बीत गया है। लेकिन मुझे पीछे अब भी कोई अपनी और खिंचता है क्योंकि मेरी कलाइयों पर बीती सुबह साँझो की अनगिनत यादें बंधी है।  


मेरे इस जलते मन की राख़ से एक दिन हो सकता हो कोई फूल खिल आये।  कभी तुम्हें किसी मिट्टी के ढ़ेर पर कई सारे खिले फूल दिखाई पड़े। इन ख़िले फूलों को देखकर हो सकता है तुम्हें ये ख़याल आ जाएं की कौन यहाँ ें फूलों के बीजों को बो कर गया होगा ? पर कभी ये भी ख़याल करना कहीं मेरे जलते मन की राख़ ही तो ख़ुद फूल बन नहीं खिल रहे है।  मेरे मन के राख़ से खिलने वाले फूल अब तेरे गजरे में भी खिले हुए दिखते है। यही फूल कभी तुझे किसीने दिए हुए पुष्पगुच्छ में तो कभी तुमने ईश्वर को अर्पण किये होंगे ? 


पता नहीं मेरे इस राख़ के फूलों की खुशबु भी आएगी या नहीं। दूर किसी फूलों के बन में खिलने वाले फूलों की खुशबु किसी सीमेंट के जंगलों तक पहुँचती है या नहीं।  हो सकता हो शायद कभी मेरे राख़ के फूल कभी तेरी हथेली से ईश्वर को अर्पण हो।  कभी युहीं  उन हथेली को अपनी साँसों से छूने की कोशीश कर देख मेरे राख़ की खुशबु आती है या नहीं। शायद तेरे  मन फ़िर से एक बार मोह ले वो खुशबु जिससे तेरे चेहरे पर वो ख़ामोश हँसी फ़िर से खिल उठे कभी।   

No comments:

Post a Comment

IFRAME SYNC