उजले नक्षत्रों के काजलदाग़ |
पहाड़ों के एकांत क्षणों में दसों दिशाएं अचानक एक होने लगी है। उन सभी क्षणों को पिरोकर मै अपने बदन पर लपेट लेता हु। उन सब की गाँठे बांधते ही मन के अँधेरे कोने रौशन होने लगते है। कलेजे पर जैसे किसीने कुछ गोंद दिया हो, वैसी ही यादे छप गयी है तुम्हारी।
इस एकांत आसमान के साये में तुम्हारी यादें अचानक जल उठती है, अचानक ज़ख्मो की बाढ़ बहने लगती है। प्रीत के धागे ऐसे दाह से, ऐसी बाढ़ से तारतार होने लगते है। ऐसे दर्द के धागे बड़े जतन से पिरोकर बदन पर लपेट कर रखने पड़ते है; नहीं तो सारे बदन का नंगापन छुपाते छुपाते कभी कभी यही दसों दिशाएं कम पड़ने लगती है। सारा आसमान लगता है अपने ही ऊपर गिरने वाला है। गिरते आसमान को सँभालने के लिए कभी खुद ही सहारा बनना पड़ता है। इन्ही एकांत क्षणों में मन के अंदर की दुनियाँ पूरी तरह से ख़्वाबों कि दुनियाँ होती है। अंदर कुछ दबी हुई यादेँ ख़्वाबों में आकर हक़ीक़त में बदलने की कोशीश करते रहते है, जो कभी सच नही होते। लेकिन कम से कम जीने कि एक उम्मीद हो दे जाते है।
तुम्हारी गैरमौजूदगी से थक चुके दीवारों की दरारें जब एक होकर सिमटने लगती है, तब यही दरारें छत के कवेलू ओढ़कर घर के कोने में पड़े रहते है। चूल्हे के धुएं में, घुटती सांसों से तुम्हारी आँखों से गिरते आँसुंओं की नमी अब भी मेरे कलेजे पर गूदे हुए काजल के गोदन को मिटाना चाहते है। मुझे जब भी तुम्हारी याद आती है, तब मै कवेलू के छत से दिखने वाले आसमान पर गूदे हुए नक्षत्रों को देखते रहता हु। उन्हीं नक्षत्रों को मै अपने माथे पर लगाने की कोशिश भी करते रहता हु। तेरी यादों का बिछौना बिछाकर में कभी कभी उन्हीं नक्षत्रों को ओढ़कर सो जाता हु। बिना नक्षत्रों के आसमान का खालीपन उसे कहीं ना कहीं खलता जरुर होगा; तभी तो बादल अपने दर्द के साथ रोते रहते है और छत के कवेलू पर उन्ही आँसूओं के मोर रातभर नाचते रहते है। तुटे हुए कवेलुओं से, तुटे हुए खिड़कियों के झरोंको से वही मोर मुझे झॉँकते रहते है।
ऐसे बारिश को मैंने अपने यादों कि हथेली में मजबूती से पकड़ कर रखा है। ऐसे बारिश के मौसम बड़े जानलेवा लगते है कभी कभी। अब बारीश का मौसम ख़त्म होने को आया है। सारा आसमान साफ हो गया है। दर्द से रोने वाले बादलों के मोर पता नहीं किस देस चले गए। सारे घर को खिली हुयी धुप से लपेटे हुए छत से सूरज की किरणें घर से अंदर तक आये को बेताब रहती है। घर में जलते हुए चूल्हे के धुएँ में और धूल में मैं इस रौशनी को देखते रहता हु। अपने मन को दर्पण बनाकर सारे घर भर मै उस रौशनी में नाचते रहता हु और साथ साथ उस रौशनी के उजले दागों का दाह मैं सारी जिंदगी सहता रहता हूँ ख़ामोशी से ।
अब मैंने अपना ठिकाना बदल लिया है। लेकिन पुराने घर के काजलदाग़ अब भी मैंने अपने नए घर के छत पर दिखने वाले चांदनी के पास चिपकाकर रखा है। रात होने पर अँधेरे में छत पर चिपकाएँ हुए चमकते, टिमटिमाते नक्षत्रों को देखते रहता हु। छत पर लगाए हुए उजले नक्षत्रों के काजलदाग़ यहॉ भी मुझे सताते रहते है, उसी बारिश के मोरों जैसे। नक्षत्रों को ओढ़कर मै तुम्हारी यादों की दुनियाँ के सफ़र पर निकल पड़ता हूँ उन्हीं मोरों की तलाश में, तब तुम्हारी यादों की परत और गहरी होकर मेरे सारे बदन से कसकर चिपक जाती है।
मै फिर से एक बार उसी पुराने घर में लौट आता हु। उन्हीं छत से गिरने वाली रौशनी के टुकड़ो को अपनी मुठ्ठी में पकड़ने की कोशीश करता हु। क्या हाथ लगेगा ? रौशनी की किरणे ही तो है आख़िर .. . . . . . . ! ये रौशनी के टुकड़े हाथ तो नहीं आते लेकिन कलेजे को जरुर जला देते है। कलेजे से बहते हुए दर्द के घावों का खून गीले, सर्द दीवारों के टुकड़ो को ख़रोंच कर चिपकाने की कोशीश करते रहता हु। मेरे नए घर में तुम ख़ुद ही मुझ पर चादर ओढ़ा रही हो, ऐसा जानकर छत पर चिपकाये हुए नक्षत्रों की चाँदनी अपने ऊपर ओढ़ लेता हु।
No comments:
Post a Comment