मै तुम्हे अब भी याद करते रहता हु। पता नहीं अब कितने साल हो गए है, तुम्हें याद करते करते। सालों पहले की बाते- मुलाकातों की यादें मतलब कलेजे के किसी कोने में बंद, सुगंधी मोगरे के फूलों से हुआ एक ज़ख्म ही ........! न जाने क्यों, इतने बरसों बाद वो ज़ख्म फ़िर से ताज़ा होने लगे है। राह चलते बाज़ार में बिकते मोरपंख और उस मोरपंख की आँखे क्या मुझे तुम्हारी याद दिला रहे है। सप्तरंगी, नाजुक मोरपंख धीरे से मेरे रोम रोम को स्पर्श करते हुए जाते है। बस कुछ इस भ्रम में के लगता है जैसे मेरे बदन पर तुम्हारी उंगलियों ने हलके से छुया हो। मुझे पता है ये के भ्रम ही है, पर लगता तो सच ही है।
कभी अपने बरसों पुराने मुलाकातों में तुमने मेरे हाथों में थमाया हुआ मोरपंख मैंने अब भी अपने घर के पुराने संदूक में संभाल कर रखा है, तुम्हारी यादों को जिंदा रखने के लिए। अब तुम मेरे पास नहीं हो लेकिन तुम्हारी यादों के मोरपंख अब भी मेरे मन के आसपास उड़ते रहते है। मै कहीं भी जाऊ, तुम्हारे यादों के मोरपंख मेरा साथ नहीं छोड़ते। चुपके से पुराने संदूक से वो बरसों संभालकर रखा हुआ मोरपंख बाहर निकालकर छूने की कोशिश करते रहता हु। बाहर बारीश होने का अहसास होता है। कुछ बारीश की बुँदे मेरे मन में भी गिरने लगती है। यादों की क़िताब के मोर भी जिन्दा होकर उसी बारीश में नाचने लगते है। नाचते नाचते मोर के पंख भीगी हवाओं में ऊँचे ऊँचे उड़ने लगते है। बारिश के पानी से सारा जंगल दलदल हो जाता है। मेरे यादों के मोर उसमे डूबने लगते है। पीछे रह जाती है उन्ही नाचते हुए मोरों के पैरो के निशाँ। ऐसे कई बार हुआ है और हर बार यही होता है। जंगल का पानी अपना रास्ता ढूढंते हुए नदी को जा मिलता है। नदी में कई बार बाढ़ आती जाती रहती है। आँखे खोलकर देखता हु तो ख़याल आता है कि मन के मोरपंख धीरे धीरे फीके पड़ने लगे है।
पता है मुझे, कि हर किसी के जीवन में सभी मोरपंख खिलते नहीं। हो सकता हो ये कोई तक़दीर का है खेल होता हो। जो मोरपंख खिले नहीं क्या उन्हें फ़ेंक दिया जाए ? मोरपंख खिलना चाहते है, नहीं खिले ये उनका दोष नहीं। जंगल के दलदल में फ़से मोरपंखों को नदी अपने साथ बहा लेती है फिर किसी के भाग्य का लिखा हुआ कर्ज उतारने के लिए.. . . . . . . . ! बहते नदी में मै भी ख़ामोशी से बहता रहता हु किसी किनारे की उम्मीद में।
मै किनारे को छोड़कर घर आता हु। मै अब भी तुम्हारे 'प्रतीक्षा' में खड़ा रहता हु, दरवाज़े के चौख़ट पर अपना माथा टेककर। अपने कलेजे में उन्हीं मोरपंखों को गाड़कर अब मै खुद ही मोर होने लगता हु। सारा पिसारा उखाड़ फेंकने के बाद विद्रूप हुए पैर अपने छाती से लगाकर किसी नदी किनारे, नागफ़नी के जंगलों में गिरा पड़ा रहता हु। खुली आँखों से कुछ देखने की कोशिश करते रहता हु। याद करता हु की कभी इन्ही आँखों में उन्हीं मोरपंखों की आँखें लटकी हुआ करती थी। लेकिन अब सिर्फ़ आँखों के गड्ढे है बिना पुतली के। इन आँखों के गड्ढों में अब अँधेरा है, घना गहरा अँधेरा।
उस अँधेरे परदे पर बेरंगी ख़्वाब दिखते रहते है। मै यहाँ वहाँ पूछते हुए भटकते रहता हु कि कहाँ है मेरी वो आँखे ? किसने चुराई है मेरी मोरपंखी आँखे ? क्या उसी मन में मोर ने तो नहीं चुराई ? ऐसे हजारों सवाल लेकर मै उन्हें सुलझाने की कोशिश में लगा रहता हु। सारे सवालों के बीच मै अकेला सा पड़ जाता हु। यही जीवनभर का अकेलापन अपने बदन पर लपेट लेता हु। फिर से उसी काले अँधेरे परदे पर अचानक कभी कभी तुम्हारा चेहरा भी नज़र आने लगता है।
मै तुम्हारा वो चेहरा अपनी हथेलियों में समटने की कोशिश करते रहता हु। पर कैसे वो हाथ आयेगा? ख्वाबों के परदे पर धुंदली सी तस्वीर ही है ना आख़िर . . . . . . . . . . .!
Bahut badhiya sirji aise hi likhte raho
ReplyDeleteBahut achaa lagta hai...
Thank you very much for your kind support
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