जीवन की शाश्वत यात्रा


एक साधारण व्यक्ति उसी दिन असाधारण बन जाता है, जब उसमें बाकी साधारण श्रेणी के लोगों की आलोचनाओं से ऊपर अपने जीवन का लक्ष्य मिल जाता है। जिसे जीवन में लक्ष्य मिल जाए, उसे कोई आलोचना ऊपर उठने से नहीं रोक सकती। यदि हम भीड़ के साथ चलेंगे तो हमको भी वही मिलेगा जो भीड़ को मिलता है। लेकिन बड़े मजे की बात है कि हर कोई अलग पहचान पाना चाहता है, पर भीड़ को छोड़ना नहीं चाहता और खुद को अलग करना नहीं चाहता। यदि अलग सोचेंगे तो अलग मिलेगा। हम संघर्ष तो करते  है लेकिन,
जीवन की शाश्वत यात्रा 


एक साधारण व्यक्ति उसी दिन असाधारण बन जाता है, जब उसमें बाकी साधारण श्रेणी के लोगों की आलोचनाओं से ऊपर अपने जीवन का लक्ष्य मिल जाता है। जिसे जीवन में लक्ष्य मिल जाए, उसे कोई आलोचना ऊपर उठने से नहीं रोक सकती। यदि हम भीड़ के साथ चलेंगे तो हमको भी वही मिलेगा जो भीड़ को मिलता है। लेकिन बड़े मजे की बात है कि हर कोई अलग पहचान पाना चाहता है, पर भीड़ को छोड़ना नहीं चाहता और खुद को अलग करना नहीं चाहता। यदि अलग सोचेंगे तो अलग मिलेगा। हम संघर्ष तो करते  है लेकिन, हमारी बुनियादी जड़े खोकली हो गयी है। हमारा खोकला संघर्ष हमको और कमजोर बना रहा है जिससे हम अपने आने वाले कल को सबसे बेहतरीन नहीं बना सकते । ज़िन्दगी भर हम दूसरे को हरा कर जितने की कोशिश करते है; हालाँकि कोई जरुरत ही नहीं है किसी को हराने की । लेकिन सारी दुनिया इसी बीमारी से पीड़ित है।  यही दुनिया का सबसे बड़ा रोग है, जिसका कोई इलाज नहीं । जिस दिन हम फैसला कर लेते है  कि सामने वाले को हराना है, उसी दिन हमारी हार तय हो जाती है। हम भूल जाते है हमारी जीत किसी दूसरे के हार पर निर्भर है।  लेकिन फिर भी हम जितने का मज़ा लेते है और खूब लेते है। ये दुसरो में मज़ा लेना दिखता है की हम सच में अपने आप से कितना जुड़े है। जो व्यक्ति दुसरो में दिलचस्पी लेता हो उसे खुद के जीवन से क्या लगाव होगा ? हमारे जीवन की महिमा हमारी आंखों से ही झलकनी चाहिए। किसी दूसरे के नज़रो में अच्छा दिखने के लिए क्या नहीं करते हम लोग। जीवन में हम कितने अच्छे है ये दुसरो को बताने की जरुरत ही नहीं होनी चाहिए। बस इसे जीते आना चाहिए, इसे महसूस करते आना चाहिए। सिर्फ एक अच्छा इंसान होना ही हमको हर जगह परिभाषित करता है। यह हमारा जीवन है, इसलिए हमको ही इसके लिए जिम्मेदार रहना चाहिए। 


लेकिन, हमारा सारा जीवन भारी विचारों की धारणाओं के बोझ से दबा पड़ा है। आप यकींन नहीं करेंगे ये बोझ और कुछ नहीं बल्कि हमारी खुद की बनावटी छवि की है । हम सब भारी बनावटी छवि के साथ जी रहे हैं सिर्फ दूसरों को दिखाने के लिए, और कुछ नहीं। जब की. हमारे गुजर जाने के बाद कोई भी हमको गहराई से याद नहीं करेगा। हमारी बनावटी छवि, जीवन के चेहरे पर लगी वो लीपापोती होती है जो पानी के कुछ बूंदो से ही बह जाती है। ऐसे जीवन का क्या फायदा जिसकी कोई अहमियत ही नहीं। जीवन की महिमा हमारी आंखों से झलकनी चाहिए। इसके लिए जीवन को गहराई से सोचने और जीवन को संहिताबद्ध करने की भी आवश्यकता नहीं है; बस इसे जीना आना चाहिए, महसूस करना चाहिए  और इसका आनंद लेना आना चाहिए और कुछ नहीं । हम सभी का जीवन सिर्फ और सिर्फ ईसी बात को स्वीकार करता है कि हमारे पास इस क्षण में आवश्यकता के लिए क्या जरुरी है। यदि हमारे लिए थोड़ा सा भी पर्याप्त नहीं है, तो कुछ भी नहीं है। हम में से कई इस विश्वास से जीते हैं कि हम  जब हम कुछ हासिल कर लेंगे तो हमें खुशी होगी। लोग हासिल तो कर लेते है, लेकिन वो खुशी सिर्फ पल दो पल की होती है और सिर्फ दुसरो को दिखाने के लिए होती है। जिसका जीवन की वास्तविकता से कोई सरोकार नहीं।   


हमारा जीवन वास्तव में एक शाश्वत यात्रा है और हम  एक इस यात्रा के प्रवासी पक्षी हैं, जो अंधकार से प्रकाश की ओर यात्रा करते  है और फिर अंधकार में कही खो जाते है। जब इस यात्रा में खोना ही है तो वास्तिविक छवि के साथ क्यों नहीं। हमारी यही वास्तिविकता हमें बेहतर इंसान बनाती है और एक अच्छा इंसान होना हमको हर जगह परिभाषित करता है। हम सबको अपने जीवन से प्यार होता है और होना भी चाहिए क्योकि इससे अमूल्य चीज़ सारे संसार में दूसरी कोई और नहीं है। जब हमें इसके मूल्य पता है तो वास्तिविकता के साथ जीने में हम क्यों हिचकिचाते है। जब सारे अस्तिस्त्व का रंग हर किसी के जीवन में है, तो जीवन इतना बेरंग क्यों ?प्रकृति में सभी का जीवन अस्तित्व के रंगो से भरा हुआ है। किसी के भी जीवन का रंग किसी दूसरे से कम या ज्यादा नहीं है। सभी को अपने जीवन के हर रंग को इसी जीवन में सब के साथ बिखेरकर विदा होना है। ये हर व्यक्ति पर निर्भर करता है की किसका जीवन कितने रंगो की गहराई से भरा है। किस दसा, किस अवस्था या हालत में हम अपने जीवन को त्यागते है यह व्यक्ति के अपने निजी जीवनचर्या पर निर्भर करता है। रोज हम अपने किसी को इस दुनिया से बिदा होते हुए देखते है। ऐसी ही एक दिन ख़ुद को भी जाना है। शरीर के नष्ट होने के बाद जो 'अवशेष' रहता है वह हम नहीं है। वास्तव में हम पहले भी कुछ नहीं थे और मरने के बाद भी कुछ नहीं है। यही हमारा जीवन है, यही हमारे जीवन की वास्तिविकता है । इसलिए हमको ही इसके लिए जिम्मेदार रहना चाहिए। हम इसलिए जीवन को वास्तिविकता के साथ नहीं जीते क्योकि हम सभी ऐसे संप्रदाय के भीड़ के साथ जीना चाहते है जिसका कोई वजूद ही नहीं होता। हम भीड़ का वो हिस्सा होते है जिसके सोचने की सारी क्षमता नष्ट हो चुकी है।  हम यह सोचने की हिम्मत जुटाने में हमेशा नाकाम रहते है की  ख़ुद के जीवन में भी कुछ गलत हो गया है।  अपना जीवन चरित्र बदलना वह दुख है जिससे हम सबसे ज्यादा डरते हैं। हमारी मृत्यु जीवन का सबसे बड़ा नुकसान नहीं है, सबसे बड़ा नुकसान वो है जो जीते जी हमारे अंदर मर जाता है।  


हालाँकि, खुद को बदलना कई बार कठिन काम होता है, क्योकि हम सिर्फ जीने के ढंग बदलना चाहते है। जीने के ढंग को बदलना मतलब जीवन नहीं होता।  ऐसे जीवन का कोई मूल्य भी नहीं होता। हमको  ये पता ही नहीं कि जीवित होने में और चैतन्य होने में (Conscience) होने में अंतर होता है। महत्व जीवन का बहुत नहीं है, महत्व चेतना का है, कॉन्शियसनेस का है। आवश्यक नहीं है कि हम जीवित हों तो हम चैतन्य याने कॉन्शियस भी हों । एक व्यक्ति जो कोमा में पड़ा हुआ है वो जीवित तो है, पर उसमें चेतना बहुत कम है, इसीलिए सुना होगा कि डॉक्टर कह देते हैं कि मरीज वेजिटेबल स्टेट (वानस्पतिक अवस्था) में है। फिर भी उसकी देखभाल इस उम्मीद में की जाती है कि एक दिन उसमें चेतना भी आ जाएगी। जीवन का महत्व बस तभी है जब उस जीवन में चेतना हो, नहीं तो जीवित शरीर सालों पड़ा रहेगा अगर उसमें चेतना की कोई संभावना, कोई आशा ना बचे।  कोई व्यक्ति कोमा में है और अगर डॉक्टर साफ कह दें कि इसे हम ज़िंदा रख सकते हैं। लेकिन पाँच साल, दस साल, बीस साल सिर्फ वेंटिलेटर पर ये जीवित रहेगा और इस बात की कोई संभावना न हो कि ये दुबारा चैतन्य हो पाएगा, कॉन्शियसनेस रिगैन कर पाएगा तो क्या हम उस व्यक्ति को जीवित रखना चाहेंगे वेंटिलेटर पर सालों तक ? क्यों नहीं रखना चाहेंगे ? इसीलिए नहीं रखना चाहेंगे क्योंकि अब महत्व जीवन का नहीं है, महत्व चेतना का है। कोई जीवित है और उसमें चेतना नहीं बची, तो हम  उसको फिर मरे समान ही मानते है और अगर कोई जीवित है और उसकी चेतना विकृत हो गई है, भ्रष्ट हो गई है, तो उसको भी हम फिर विक्षिप्त करार देते है, उसको पागल मान लेते है। फिर हम उसे  पागलखाने में डाल देते है।  उसके जीवन की फिर कोई विशेष कीमत नहीं करते हम । 


मनुष्य की चेतना का मतलब होता है चुनाव कर पाने की क्षमता। सूरज दाएँ दिशा में था, तो सूरजमुखी का फूल दाईं दिशा को झुक गया। ये चेतना की बात नहीं है; ये तो विवशता हो गई। सूरज जिधर होगा, उसी और मुड़ना पड़ेगा। इसमें चुनाव कहाँ है ? रात हुई नहीं कि पौधे का फूल बंद हो गया, उसने पंखुड़ियाँ वापस समेट ली। ये चेतना की निशानी नहीं हैं। हाँ, जीवन ज़रूर है उसमें। इससे  कोई इनकार नहीं करता। पर चेतना नहीं है उसके पास। ये पहले से ही अगर तय है कि जिधर सूरज है, सूरजमुखी उधर को ही झुक जाएगा, तो ये चेतना की नहीं जड़ता की निशानी है। चेतना जहाँ होती है वहाँ दर्द का अनुभव, पीड़ा का अनुभव, सफरिंग और  मुक्ति की ललक होती है। लेकिन इस सत्य को स्वीकारने में हमें बड़ी कठनाई महसूस होती है।  हमें पता सब कुछ होता है लेकिन हम खुद इस बात को नहीं मानते। खुद के चैतन्य को, consciences को जानने के लिए किसी के तर्कों की कोई ज़रूरत ही नहीं होती । भले ही कितना भी सच समाज, संप्रदाय या हमारे धर्मग्रन्थ बताये, खुद के जाने बिना उसे सच मान लेना अपने खुद के चैतन्य के साथ बेईमानी है।  


मेरे कथन आपके अनुरूप ही हो ऐसा जरुरी नहीं, हो सकता हो आप सहमत भी न हो।  पर ये मेरा जाना हुवा सच है। अनुरोध है की आप अपने चैतन्य के स्तर पर इसे परख ने की चेष्टा करे। आप इसे थोड़ा भी सच पाते है तो अपने दोस्तों को जरुर शेयर करे।

No comments:

Post a Comment

IFRAME SYNC